"पुलिस मित्र भी" क्या पुलिस के इस स्लोगन को बदलना चाहिये

 


इधर की कुछ पुलिसिया घटनाओं को देखा जाये तो अब ये लगने लगा है कि पुलिस मित्र नहीं है!

और ऐसा सिर्फ चंद पुलिस कर्मियों की हरकत से हो रहा है उनके *आक्रामक* रवय्ये की वजह से हो रहा है।

विश्वविद्यालय चौकी इंचार्ज द्वारा कवरेज़ के दौरान पत्रकार को धक्का देने का मामला हो! महानगर थाना क्षेत्र में मेट्रो चौकी इंचार्ज के द्वारा चौकी में युवक को मारने का मामला हो,थाना हसन गंज क्षेत्र पक्का पुल पर बकरे लेने निकले युवकों को बेरहमी से मारने का मामला हो! या फिर कानपुर में भोगनी पुर थाने में तैनात चौकी इंचार्ज महेंद्र पटेल के द्वारा महिला को गिरा कर उस महिला को मारने का मामला हो! और सबसे निंदनीय मामला चारबाग में आरपीएफ पुलिस द्वारा एक गरीब परिवार के खाने की हंडिया पर लात मार कर खाना फेंकने का मामला हो जिसमें उबलती हुई दाल से एक साल का बच्चा व उसकी माँ झुलस गई।

इस गर्मी में गरम दाल से झुलसे मासूम की तकलीफ का अच्छे से एहसास किया जा सकता है। पर ये एहसास इन चंद पुलिस कर्मियों को क्यों नहीं होता है! 

और इनकी वजह से मानवता और हमदर्दी के साथ डयूटी करने वाले पुलिस कर्मियों को भी शर्मसार होना पड़ता है।

क्योंकि खबर *खाकी* के नाम पर चलती है जिसमें पूरा महकमा आ जाता है!

पुलिस का कड़क रवय्या ज़रूरी है पर इंसानियत के दायरे में!
वरना तो ऐसे में *पुलिस मित्र भी* ये कहना बेमानी हो जाएगा।



*परवेज़ अख्तर* की कलम से-



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