हमें मानव का शरीर एकमात्र अपनी ‘आत्मा के विकास’ के लिए परमात्मा ने दिया है!

 


परमात्मा ने दो तरह की योनियाँ बनायी हैं - पहला पशु योनियाँ तथा दूसरा मानव योनि। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार 84 लाख पशु योनियों में अगिनत वर्षों तक अत्यन्त कष्टदायी तथा दुःखदायी जीवन बिताने के बाद मानव योनि में जन्म दयालु परमात्मा की कृपा से बड़े सौभाग्य से मिलता है। इस मानव योनि में ही मनुष्य अपनी आत्मा का विकास करके जीते जी मोक्ष अर्थात जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। 84 लाख पशु योनियों में आत्म तत्व न होने के कारण आत्मा के विकास का अवसर नहीं मिलता है। यदि हमने 84 लाख पशु योनियों के बाद मानव योनि में जन्म लेने के सुअवसर को ऐसे ही गुजार दिया तो हमें फिर से 84 लाख पशु योनियों में अत्यन्त कष्टदायी तथा दुःखदायी परिस्थितियों में अनगिनत वर्षों के लिए भटकना पड़ता है। 84 लाख पशु योनियों की कठिन यात्रा करने के बाद फिर जाकर हमें पुनः मानव योनि में अपनी आत्मा के विकास तथा जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त होने का अवसर दयालु परमात्मा की कृपा से मिल सकता है। 

शास्त्रों में लिखा है कि आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। धर्मो हि तेषामधिको विशेषः धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।। आहार, निद्रा, भय और मैथुन (संतान उत्पन्न करने की क्षमता) ये चार चीजें तो मनुष्य और पशु में एक समान है। मनुष्य में विशेष केवल धर्म अर्थात कर्तव्य है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है। आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह सब तो हमने पशु की योनियों में भी किया था, अब हम क्या यह मानव जीवन भी बस इसी काम में गुजार देंगे? 

एक युगानुकूल बहुत ही सुन्दर प्रार्थना है - एक कर दे हृदय अपने सेवकों के हे प्रभु, निज महान उद्देश्य उन पर कर प्रगट मेरे विभु। एक कर दे हृदय अपने सेवकों के हे प्रभु।। क्या हमें अहसास नहीं होना चाहिए कि 84 लाख पशु योनियों में अत्यन्त कष्टदायी तथा दुःखदायी परिस्थितियों में अनगिनत वर्षों के लिए भटकने के बाद प्रभु कृपा से मिलने वाला जीवन एक महान उद्देश्य के लिए मिला है? आइये, इसी क्षण से सोचे! वह महान उद्देश्य क्या हो सकता है? हमें सबसे पहले परमात्मा को जानना और उसकी शिक्षाओं पर चलने का दृढ़तापूर्वक चलने का प्रयास करना है। प्रत्येक काम में सफलता के लिए विशेष प्रयत्न और विशेष काबिलियत की आवश्यकता होती है। हम अजीविका के लिए कोई भी व्यवसाय या नौकरी करते हैं तो सबसे पहिले वर्षों तक उसका अभ्यास तथा अनुभव अर्जित करते हैं। चलो अब सोचे कि हमने अपनी आत्मा के विकास के अन्तर्गत परमात्मा को जानने तथा उसकी शिक्षाओं पर चलने के लिए क्या प्रयास किये हैं? सभी पवित्र पुस्तकों ने हमें समझ दी है कि अपने युग के अवतार की शिक्षाओं को ‘जानना’ ही प्रभु को जानना है’ तथा उन शिक्षाओं पर ‘चलना’ ही ‘प्रभु भक्ति’ है!

परमपिता परमात्मा द्वारा भेजे गये युग अवतार को जानने के लिए भी उसी स्तर की तैयारी जरूरी है और फिर समझ भी चाहिए और पूरी तरह प्रभु के प्रति समर्पण-विश्वास भी। यह सब देकर भी, किसी भी कीमत पर भी यदि इस जीवन में आध्यात्मिक समझ मिल जाए तो जीवन का महान उद्देश्य प्राप्त करना सफल हो जाएगा। किसी भी वस्तु की आधी अधूरी उपलब्धि काम की नहीं होती है, सम्पूर्णता ही काम आती है। हमने धर्म के नाम पर आत्मा या परमात्मा की जो थोड़ी बहुत बातें सुन या जान ली हैं क्या उनसे हमारे निज महान उद्देश्य की प्राप्ति होने वाली है? हमें पवित्र पुस्तकों की गहराई में जाना होगा, सम्पूर्णता के साथ समझना होगा। 

मनुष्य का यह शरीर पांच तत्वों पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु से मिलकर बना है। ये पांचों तत्व नाशवान हैं। मृत्यु के पश्चात शरीर को जलाने या गाड़ने के बाद ये पांचों तत्व अपने-अपने स्रोत में मिल जाते हैं। मनुष्य की आत्मा अजर अमर अविनाशी है। मृत शरीर से निकलकर आत्मा अपने स्रोत परमात्मा से मिलन के लिए अपनी चेतना के स्तर के अनुसार पवित्र आत्मा में मिल जाती है। विकसित आत्मा मृत्यु के पश्चात आत्मिक आनंद पाने के लिए संसार में ही किसी पवित्र आत्मा में मिल जाती है। अविकसित तथा कलुषित आत्मा प्रभु मिलन के अभाव में अनेक वर्षों तक विलाप तथा पश्चाताप करती हैं। 

हमें मनोशरीर के साथ चार अंग या यंत्र आँख, कान, हृदय तथा हाथ प्रभु के कार्य के लिए विशेष कृपा से मिले हैं। परमात्मा कहता है कि हे प्राणी तुम्हें जो मैंने आँखें दी हैं, वो ईश्वरीय महिमा का दर्शन करने के लिए दी है। इसलिए व्यर्थ की चीजें को हम अपनी इन आँखों से न देखे। ईश्वर कहता है कि तेरी आँखें मेरा भरोसा है। तू इन आंखों को व्यर्थ की इच्छाओं की धूल से आच्छादित न कर। तेरे कान मैंने तुझे अपनी पवित्र वाणी को सुनने के लिए दिये हैं। इन कानों से तू मेरी आज्ञा एवं इच्छाओं के विपरीत कोई बात न सुने। तेरा हृदय मेरे गुणों का खजाना है। तेरे स्वार्थ में लिपटे गंदे हाथ कही मेरे गुण रूपी खजाने को लूट न लें। मंैने तुझे जो हाथ दिये हैं वो इसलिए कि अपने संदेशवाहकों के द्वारा तेरे मार्गदर्शन के लिए धरती पर भेजी मेरी गुढ़ रहस्यों से भरी पवित्र पुस्तकें गीता, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस हो। तेरे हाथों से वही कार्य हो जो मैंने अपनी पवित्र पुस्तकों गीता, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस में आज्ञायें दी हैं। 

तू ही तू, तू ही तू, हर शह में बसा है तू। परमात्मा कण कण में व्याप्त है। वह ऊपर भी है, नीचे भी है, पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण चारों दिशाओं में हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां परमात्मा का अस्तित्व नहीं है। सृष्टि के प्रत्येक जीव, वनस्पति, हवा, पानी, अग्नि, सभी तत्वों, पदार्थों आदि में परमात्मा व्याप्त है। परमपिता परमात्मा को हम अलग-अलग नाम ईश्वर, अल्ला, गाॅड, वाहे गुरू आदि नामों से पुकारते हैं। बिजली के तारों में निगोटिव तथा पाॅजिटिव दो प्रकार की ऊर्जा के मिलने से उसमें से बिजली उत्पन्न होती है। इसी प्रकार हमें अपने अंदर आत्म तत्व को विकसित करने के लिए दुर्भावों को सद्भावों के रूप में दृढ़तापूर्वक रूपान्तरण करना चाहिए।    

परमपिता परमात्मा शरीर नहीं वरन् आत्म तत्व है। वह शाश्वत तथा सारभौमिक है। वह सृष्टि के पूर्व भी था और सृष्टि के न रहने के बाद भी सदैव रहेगा। वह अजन्मा तथा उसकी कभी मृत्यु नहीं होती है। परमपिता परमात्मा इस सृष्टि का रचनाकार है। वह अपनी प्रत्येक रचना से प्यार करता है। परमात्मा ने प्रथम स्त्री व पुरूष को अपनी आत्मा से जन्म देकर तथा उनका विवाह कराकर लघु समाज की स्थापना की थी। परमात्मा की इच्छा सदैव से लोक कल्याण की रही है। आइये, हम लोक कल्याण की परमात्मा की इच्छा को अपनी इच्छा बनाये। हम सब मिलकर मनन तथा चिन्तन करें कि अपने युग के अवतार की शिक्षाओं को ‘जानना’ ही प्रभु को जानना है’ तथा उन शिक्षाओं पर ‘चलना’ ही ‘प्रभु भक्ति’ है! यह इस युग का सबसे महत्वपूर्ण विचार है। इसी विचार की गहराई में धरती के प्रत्येक व्यक्ति तथा सारी मानव जाति की समस्या का समाधान निहित है। अभी नहीं तो कभी नहीं।

- डा0 जगदीश गांधी, 

शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, 

सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ । 



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