कुंडलिया

     

                         (1)

रंग-राग रति-काम का, देखत मास बसंत

मदन-वास से हो विकल, पपिहा ढूँढे कंत

पपिहा ढूँढे कंत, मिलन की आस लगाये

नहीं विरह का अंत, सभी सुध-बुध बिलगाये

‘कश्यप’ कविताकार, तू रख ले अपने संग

कर ले एकाकार, डूब के एक ही रंग।

                         (2)

कू-कू कोयल बोलती, जब आता ऋतुराज 

मन-मिजाज को बेधती, दे-दे के आवाज

दे-दे के आवाज, विकलता हिय में भरती

नया-नया आगाज, दिखा विचलित मन करती

‘कश्यप’ कविताकार, जिगर से धूकू-धूकू

हो जाता बीमार, बोल जब सुनता कू-कू।

                       (3)

आते ही ऋतुराज के, जागा भोग-विलास

कुछ का मन पुलकित करे, कुछ का करे उदास

कुछ का करे उदास, कंत की याद सतावे

यौवन का उपहास, देख कर रहा न जावे

‘कश्यप’ कविताकार, कलम तब चल ही जाते

पाता है सत्कार, छंद बन कर जब आते।


डा0 जनार्दन चतुर्वेदी ‘कश्यप’

राजपूत नेवरी, भृगुआश्रम, बलिया

मो0- 9935108535


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