महान समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले भारतीय समाज के उन युगपुरुषों में से एक थे, जिन्होंने असमानता और रूढ़िवाद से जकड़े देश को नई दिशा, नई चेतना और नए संघर्ष का मार्ग दिखाया। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें स्मरण करना केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि उस सामाजिक क्रांति को याद करना भी है, जिसकी ज्वाला उन्होंने अपने अथक संघर्षों से प्रज्वलित की थी। फुले जी का जीवन इस बात का प्रतीक है कि परिवर्तन वहीं संभव होता है जहाँ साहस, संवेदना और दृढ़ संकल्प का अद्भुत संगम हो।
11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के पुणे में माली समुदाय के एक साधारण परिवार में जन्मे ज्योतिबा फुले ने अपने संघर्षपूर्ण जीवन से यह सिद्ध किया कि महानता जन्म से नहीं, बल्कि कर्म और विचारों की शक्ति से प्राप्त होती है। समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव, महिला विरोधी सोच और शोषण के अंधकार के बीच फुले जी एक ऐसे प्रकाश स्तंभ बनकर उभरे, जिसने करोड़ों शोषितों और वंचितों को आशा और अधिकारों का मार्ग दिखाया।
शिक्षा को उन्होंने समाज परिवर्तन का सबसे प्रभावशाली हथियार माना। उनका विश्वास था कि “अज्ञानता ही सभी बुराइयों की जड़ है।” इसी विचारधारा के साथ 1848 में फुले दंपति ने देश का पहला बालिका विद्यालय स्थापित कर इतिहास रचा। उस समय लड़कियों की शिक्षा को पाप कहा जाता था, लेकिन फुले और सावित्रीबाई ने अपमान, बहिष्कार और विरोध की आग में तपते हुए भी अपने मिशन को नहीं छोड़ा। सावित्रीबाई फुले को देश की पहली प्रशिक्षित महिला अध्यापिका बनाकर उन्होंने न केवल स्त्री-शिक्षा का द्वार खोला, बल्कि महिला सशक्तिकरण की नींव भी रखी।
फुले का सुधार आंदोलन शिक्षा तक सीमित नहीं था। उन्होंने जाति आधारित उत्पीड़न को समाज की सबसे बड़ी बीमारी कहा और इसे मिटाने के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। 1873 में स्थापित सत्यशोधक समाज ने असमानता, ऊँच-नीच और सामाजिक पाखंड के विरुद्ध एक निर्णायक संघर्ष छेड़ा। इस समाज ने शोषितों को यह संदेश दिया कि मानवता की पहली शर्त समानता है—और किसी भी व्यक्ति का मूल्य उसकी जाति से नहीं, बल्कि उसके कर्म और चरित्र से तय होना चाहिए।
महात्मा फुले ने किसानों और मजदूरों के शोषण को भी गंभीरता से उठाया। उन्होंने सामंती अत्याचारों और धनिक वर्ग के उत्पीड़न का विरोध किया और किसानों की बदहाली को देश के सामने रखा। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “गुलामगिरी” न केवल सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करती है, बल्कि शोषित वर्ग को आत्मसम्मान और जागृति का संदेश देती है। यह पुस्तक भारतीय समाज में व्याप्त असमानताओं की तीखी आलोचना और समानता आधारित समाज व्यवस्था की प्रेरक दृष्टि प्रस्तुत करती है।
फुले का जीवन एक ऐसे योद्धा का जीवन था, जो शब्दों से नहीं, कर्म से क्रांति करता है। उन्होंने सामाजिक रीति-रिवाजों, धार्मिक पाखंडों, ब्राह्मणवादी सोच और रूढ़िवादी प्रथाओं पर साहसपूर्वक चोट की। वे कहते थे कि “सत्य की खोज ही इंसान को मुक्त कर सकती है” और इस सत्य की खोज को उन्होंने ही एक संगठित आंदोलन का रूप दिया।
आज जब हम उनकी पुण्यतिथि मना रहे हैं, तो यह आवश्यक है कि हम यह विचार करें कि फुले जी ने जिस समानता आधारित भारत का स्वप्न देखा था, उसे वास्तविकता के करीब लाने में हम कितने सफल हुए हैं। समाज में अभी भी दिखाई देने वाले भेदभाव, असमानता, महिला उत्पीड़न और शिक्षा की कमी को देखते हुए उनके आदर्श आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे। उनका संदेश हमें प्रेरित करता है कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति तभी संभव है जब प्रत्येक नागरिक को सम्मान, अवसर और शिक्षा मिले।
महात्मा ज्योतिराव फुले केवल एक समाज सुधारक नहीं थे—वे सामाजिक न्याय, शिक्षा, समानता और मानवता के ऐसे महान पुरोधा थे, जिनकी विचारधारा आज भी देश के मार्गदर्शन का आधार है। उन्होंने जो दीपक जलाया, उसकी लौ सदियों तक समाज को दिशा देती रहेगी। उनकी पुण्यतिथि पर हम उनके अद्वितीय योगदान को शत-शत नमन करते हुए यह संकल्प लें कि उनके सपनों का समतामूलक और न्यायपूर्ण भारत ही हमारा लक्ष्य होगा।
सहतवार, बलिया (उ.प्र.)
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