*“एक राष्ट्र, एक चुनाव – नई दिशा, नया सफ़र”*


बार-बार चुनाव का शोर, कभी यहाँ, कभी वहाँ मतदाता की कतार,

कभी लोकसभा, कभी विधान सभा, कभी पंचायत, कभी नगर-पार,

हर बार घोषणा पत्र, हर बार नारा, हर बार रैली, हर बार प्रचार,

धन और समय का अपव्यय, अधूरी योजनाओं का बोझ अपार।


आचार संहिता लगते ही ठहर जातीं सड़कों की रफ़्तार,

रुक जाते विकास के काम, जनता कहती — “फिर चुनावी त्यौहार!”

नेता दौड़ते गाँव-गाँव, वादों का बक्सा खोल,

पर असली मुद्दे पीछे छूटते, जनता का विश्वास हो जाता डोल।


अब सोचो ज़रा —

अगर एक ही बार सब चुनाव हो जाएँ,

तो कितनी राहत जनता को मिल जाए।

एक बार कतार, एक बार मेहनत, एक बार मतदान,

पाँच बरस चैन से काम, विकास का होगा सम्मान।


खर्च बचेगा अरबों-खरबों का,

समय बचेगा करोड़ों घंटों का,

सुरक्षा बल भी राहत पाएँगे,

लोकतंत्र के प्रहरी मुस्काएँगे।


जनता को भी मिलेगा आराम,

न हर साल झूठे वादों का इनाम।

सरकारें चलेंगी पूरे कार्यकाल,

न गिरने का डर, न टूटने का जाल।


पर साथ ही सवाल भी उठते हैं —

क्या सभी राज्यों को साथ लाना आसान होगा?

क्या संवैधानिक बदलाव तुरंत संभव होगा?

क्या छोटी सरकारें बड़ी सरकार के संग ताल मिला पाएँगी?

क्या जनता की स्थानीय आवाज़ कहीं दब तो न जाएगी?


लोकतंत्र का सौंदर्य है विविधता,

हर राज्य की अपनी नीति, अपनी स्थिति, अपनी सत्ता।

एकसाथ चुनाव में संतुलन कैसे बनेगा,

ये संशोधन किस राह से चलेगा?


फिर भी सपनों को सच करने का हौसला चाहिए,

क्योंकि नया भारत, नई व्यवस्था, नया क़ानून, नया साहस चाहिए।

“एक राष्ट्र, एक चुनाव” है नारा नहीं,

ये है लोकतंत्र को मज़बूत करने की एक गहरी सोच सही।


आओ मिलकर चर्चा करें, बहस करें, समाधान खोजें,

सवालों को अनसुना नहीं, बल्कि जवाब में उम्मीद बोएँ।

क्योंकि लोकतंत्र का भविष्य हम सबके हाथों में है,

निर्णय की डोर, जनता के साथों में है।


लेखक : अभिषेक मिश्रा "बलिया" ✍️



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