रक्षाबंधन और बलिया का महावीरी झंडा जुलूस: सदियों पुरानी परंपरा, अटूट आस्था और सांस्कृतिक गौरव
भारत की सांस्कृतिक विरासत में ऐसे पर्व हैं, जो न केवल धार्मिक मान्यताओं का प्रतीक हैं, बल्कि सामाजिक एकता, भाईचारे और वीरता की मिसाल भी पेश करते हैं। बलिया जिले में रक्षाबंधन का दिन एक विशेष मायने रखता है—क्योंकि इस दिन निकलने वाला महावीरी झंडा जुलूस पूरे शहर को आस्था और ऊर्जा से भर देता है। सौ से अधिक वर्षों से चली आ रही यह परंपरा आज भी बलिया की पहचान और गौरव का प्रतीक है।
रक्षाबंधन: प्रेम, सुरक्षा और विश्वास का पर्व
सावन माह की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला रक्षाबंधन, भाई-बहन के पवित्र बंधन का पर्व है। इस दिन बहनें भाइयों की कलाई पर राखी बांधकर उनकी लंबी उम्र और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं, और भाई जीवनभर उनकी रक्षा का वचन देते हैं।लोककथाओं में यह पर्व सीमाओं को पार करता है—चाहे रानी कर्णावती की राखी हो जो बहादुर हुमायूँ को भेजी गई थी, या गाँव की बहन जो पड़ोस के भाई को राखी बांधती है।
महावीरी झंडा जुलूस : बलिया की आत्मा
1910 के आसपास शुरू हुआ बलिया का महावीरी झंडा जुलूस केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि से भी जुड़ा है। स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि ब्रिटिश शासन के समय इसे लोगों को एकजुट करने और हिंदू वीरता का प्रदर्शन करने के लिए शुरू किया गया था। पुरानी तस्वीर : "सदी पुरानी आस्था" – 1930 के दशक में महावीरी झंडा जुलूस, जब लोग नंगे पैर, सिर पर भगवा पटका बांधकर और हाथों में लाठी लेकर बलिया की सड़कों से गुजरते थे। पुरानी तस्वीरों में यह जुलूस सैकड़ों झंडों, नंगे पैर चलते युवाओं और ढोल-नगाड़ों की ताल के बीच निकलता दिखता है—तब न सीसीटीवी थे, न पुलिस की बड़ी फोर्स, फिर भी अनुशासन और एकता अद्वितीय थी।
पुरानी यादें : बुजुर्गों की ज़ुबानी
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रामदयाल पांडेय (92 वर्ष): "हमारे जमाने में जुलूस में भाग लेना गर्व की बात होती थी। गाँव-गाँव से लोग पैदल बलिया आते थे। रास्ते में घर-घर से पानी और गुड़-चने की सेवा मिलती थी।"
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शिवकुमार मल्लाह (85 वर्ष): "पहले के अखाड़ों में लाठी और भाला के साथ-साथ दंगल भी होता था। पहलवान अपने गाँव की शान समझकर अखाड़े में उतरते थे।"
पुरानी तस्वीर : "वीरता का प्रदर्शन" – 1950 में अखाड़े के पहलवान, लाठी और भाले के साथ करतब दिखाते हुए।
अखाड़ों की कहानियाँ
बलिया के पुराने अखाड़ों जैसे हनुमान अखाड़ा, श्रीराम अखाड़ा, महावीर अखाड़ा आज भी अपने करतब से लोगों को रोमांचित करते हैं।कहते हैं कि एक समय में अखाड़ों में शामिल होने के लिए महीनों पहले से अभ्यास शुरू हो जाता था—सुबह कुश्ती, दोपहर में लाठी-भाला, और रात को भजन-कीर्तन। पुरानी तस्वीर : "ढोल-नगाड़ों की गूंज" – 1980 के दशक की झांकी, जिसमें पारंपरिक ढोल बजाते कलाकारों का समूह पूरे जुलूस में ऊर्जा भर देता था।
जुलूस की भव्यता
रक्षाबंधन की सुबह महावीरी झंडा जुलूस शस्त्र पूजन से शुरू होता है।ढोल-नगाड़ों, जयकारों और भगवा लहराते झंडों के साथ यह शोभायात्रा पूरे शहर से गुजरती है। नई तस्वीर : "आधुनिक सुरक्षा, पुरानी आस्था" – 2025 के महावीरी झंडा जुलूस का नजारा, जिसमें सीसीटीवी और ड्रोन निगरानी के बीच भी परंपरा की रौनक बरकरार। झांकियों में—
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शिव-बारात का भव्य रूप
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माँ काली का रौद्र स्वरूप
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राधा-कृष्ण की रासलीला
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हनुमान जी का पर्वत उठाए रूप
नई तस्वीर : "झांकी का अद्भुत रूप" – शिव-बारात की भव्य झांकी, सजे-धजे रथ और फूलों से लिपटे भगवान शिव के साथ कलाकार।
पहलवान और करतब
अखाड़ेबाज़ों के करतब इस जुलूस की जान होते हैं।
नई तस्वीर : "पहलवानों का दमखम" – युवा अखाड़ेबाज़ों का लाठी-कला प्रदर्शन, जिसे देखकर भीड़ तालियों से गूंज उठी।
पुरानी तस्वीर : "आस्था का कारवां" – 1990 में भीड़ से भरी गलियों से गुजरता महावीरी झंडा, चारों तरफ़ फूलों की वर्षा और जयकारों की गूंज।
सुरक्षा और प्रबंधन
आज के दौर में जुलूस की विशालता को देखते हुए प्रशासन विशेष तैयारी करता है—
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सीसीटीवी कैमरों और ड्रोन से पूरे मार्ग की निगरानी
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भारी वाहनों के प्रवेश पर रोक
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हजारों पुलिसकर्मी और पीएसी तैनात
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भीड़ नियंत्रण के लिए बैरिकेडिंग और मेडिकल टीम की व्यवस्था
नई तस्वीर : "जन-जन का उत्सव" – भगवा झंडों की कतार, जयकारों की गूंज और श्रद्धालुओं का सैलाब, जो बलिया को आस्था के रंग में रंग देता है।
आस्था, एकता और साहस का संदेश
रक्षाबंधन जहाँ भाई-बहन के प्रेम और सुरक्षा का व्रत है, वहीं महावीरी झंडा जुलूस सामूहिक साहस, धार्मिक आस्था और सामाजिक एकता का प्रतीक है।बलिया का यह उत्सव हमें यह सिखाता है कि परंपराएँ केवल रीति-रिवाज नहीं, बल्कि हमारी पहचान और आत्मा की धड़कन हैं।पीढ़ी दर पीढ़ी यह परंपरा आगे बढ़ रही है, और आने वाले वर्षों में भी यह बलिया की संस्कृति का सुनहरा अध्याय बनी रहेगी।
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