वेद और उपनिषद विश्व के प्राचीनतम आध्यात्मिक ज्ञान के स्रोत




‘वेद और उपनिषद विश्व के प्राचीनतम आध्यात्मिक ज्ञान के स्रोत हैं, जो जीवन के सम्पूर्ण क्षेत्रों की वैज्ञानिक व्याख्या के साथ-साथ उपाय भी प्रस्तुत करते हैं। हिन्दू धर्म का मूल वेदों से प्रारम्भ होता है जिसने विश्व के सभी मत-पंथों और दर्शन को प्रभावित किया है। वैदिक ज्ञान के द्वारा ही वैश्विक समाज को एकीकृत और सौहार्द्रपूर्ण बनाया जा सकता है तथा वेदों और उपनिषदों के ज्ञान से ही ‘आत्मा‘ और ‘संसार‘ के रहस्य को जाना जा सकता है। इस प्रकार सनातन काल से ज्ञान की यह परम्परा चली आ रही है। लेकिन वर्तमान में भारत के लोगों द्वारा ही इस ज्ञान की उपेक्षा की जा रही है। इसके पीछे मुख्य कारण अपनी पहचान को स्थापित न कर पाना है। समकालीन भारतीय बौद्धिक समाज आयातित अपुष्ट विचारों की मरीचिका के पीछे भाग रहा है, जबकि वह विचारों की सम्पूर्णता का वाहक बन सकता है। वह मार्क्सवाद और गैर हिन्दू के छद्म विचारों से प्रेरित है। वामपंथी चाहे केरल के हों या पं. बंगाल के, वे अपनी महान परम्पराओं से कट गए हैं। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वे कितने अचेतन हैं जिन्हें हिन्दू धर्म की शक्ति का आभास तक नहीं है। 


वेदों में आए त्याग या दान के अनुष्ठान के सन्दर्भों में जिसे यज्ञ कहा गया है, वामपंथी विचारधारा के लोगों ने उसमे पशुबलिदान को आरोपित कर दिया है। वामपंथी विचारधारा के कुछ स्वघोषित विद्वानों ने तो वेदों में आये अश्वमेध, नरमेध, अजमेध, गोमेध में ‘मेध‘ का अर्थ मारना लगाया हैं, जबकि ‘मेध’ शब्द-बुद्धि पूर्वक कार्य करने को प्रकट करता है। जब वेदों में यज्ञ को अध्वर अर्थात ‘हिंसा रहित‘ कहा गया है, तो उस के सन्दर्भ में ‘मेध‘ का अर्थ हिंसा क्यों लिया जाये ? हम सभी को यह भलीभांति ज्ञात हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति ‘मेधावी‘ कहे जाते हैं और इसी तरह, लड़कियों का नाम मेधा, सुमेधा इत्यादि रखा जाता है। वामपंथी विचारक क्या यह बताने का कष्ट करेंगे कि सदियों से चले आ रहे इस नाम को माता-पिता अपनी बच्चियों का नाम क्यों रखते हैं ? क्या ये नाम उनके हिंसक होने के कारण रखे जाते हैं या बुद्धिमान होने के कारण ? माता पिता सदैव ही अपने संतान का नाम एक सकरात्मक सोच से रखता हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि भारत में जन्में, पले-बढे बुद्धिजीवियों का एक वर्ग जो प्राचीन भारत के गहन अध्ययन का दावा करता है, वेदों में इन अपवित्र तत्वों को सिद्ध करने के लिए पाश्चात्य विद्वानों का सहारा लेता है। सबसे सुखद बात यह है कि आज पूरा विश्व भारत की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है, क्योंकि विश्व की समस्त विचारधाराएं असफल सिद्ध हो रही हैं। वे भारतीय जीवन पद्धति को अपना रहे हैं। हिन्दू धर्म ही विश्व का एकमात्र धर्म है, जो लोकतांत्रिक है, जिसमें किसी एक पद्धति पर बल नहीं दिया जाता, जबकि इस्लाम या ईसाई मत में ऐसा नहीं है। उनमें नियम तोड़ने पर उसे ‘काफिर‘ घोषित कर दिया जाता है। हमने तो चार्वाक तक को अपने दर्शनों में स्थान दिया हैं।


भारत का मीडिया और बौद्धिक वर्ग स्वयं अपने विरुद्ध है। बाबरी ढांचा गिराए जाने के समय भी यहां के मीडिया और बुद्धिजीवियों ने हिन्दुओं की कड़ी आलोचना की थी। क्योकि उन्हें इसका ज्ञान ही नहीं हैं कि भारत की ष्राष्ट्रीयश् पहचान एक उप-महाद्वीप के रूप में है और श्री राम इस उपमहाद्वीप की पहचान हैं तथा राम मंदिर इस उपमहाद्वीप का सांस्कृतिक धरोहर हैं। इसकी तुलना इंग्लैण्ड से नहीं की जा सकती। यहां की सभ्यता एकीकृत है। यहां अनेक संस्कृतियों का जन्म हुआ है। यहां ईसाई भी हैं, मुसलमान भी हैं। यहां की सांस्कृतिक एकता ही इसकी विशिष्ट पहचान है। भारत की सभ्यता ईसा से हजारो वर्ष पूर्व की है। विडम्बना है कि इतनी महान सभ्यता वाले देश के बुद्धिजीवी, जो पश्चिमी संस्कृति के मोह से बंधे हैं, हिन्दू आचार-विचार को कट्टरवाद से जोड़कर देखते हैं, उन्हें सरस्वती वन्दना और राष्ट्र वंदना में साम्प्रदायिकता दिखाई देती है। यह पश्चिमी मानसिकता वाली पीढ़ी ही भारत की समस्याओं का मुख्य कारण है। भारत को आज नई पीढ़ी के उत्साही लोगों और विशुद्ध भारतीय विचारधारा की आवश्यकता है जो इस महान संस्कृति को पुनः स्थापित कर सकें जिसका विस्तार पृथ्वी के एक छोर से लेकर दुसरे छोर तक था। जय माँ भारती।
 

पीयूष चतुर्वेदी 
प्रयागराज (उतर प्रदेश)  


 


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