आसूँ भी अजीब होते है,
गरीब बेवस लाचारो के सूख जातें है,
बेबसी लाचारी और गरीबी की चूल्हा-चौकी पर।
पर रसूखदारों, बडे घर-घरानों ऊँचे ओहदेदारो, नामदारो और शोहरती कुल-खानदानों के ऑंसू
जानते हैं
कब कहाँ कैसे छलकना हैं ?
और जानते हैं अपनी कीमत उजरत वसूलना।
गरीबी गुरूबत के ऑंसू बेगैरत बेहैसियत पानी की तरह बह जाते हैं,
बदकिस्मती के शिकार बेवस लाचारो के ऑसू
अनायास अनर्थ अनकहे ही बह जाते हैं।
पर अमीरों, रसूखदारों और सफेदपोशो के ऑंसू
जानते हैं छलक कर छलांग लगाना और उछॅड़ना-कूॅदना।
सार्वजनिक मंचों से बहते सियासी घरानों के आँसू जानते हैं
भोली-भाली जनता को बहलाना, फुसलाना जज्बाती लहर बनना
और इन लहरों पर सवार होकर
वोट उगाहना
अपनी किस्मत चमकना और चमक कर
संसद विधानसभा की दहलीज तक पहुंच जाना,
दौलत शोहरत बुलंदी सब कुछ हासिल कर लेना,
रुतबा, रसूख, रौब, सब कुछ कायम कर लेना।
बाढ की विभिषिकाओं में तबाही बर्बादी के ऑसू
सूख जाते हैं भयंकर सूखे की
तपती तड़पती भूखी प्यासी मिट्टी में।
नोटबंदी की लम्बी-लम्बी कतारों के ऑसू सूख गए
सियासत के सुनहरे सपनों की चाहत में।
कोरोना लहर में शहर-दर-शहर,
भूखे प्यासे नंगे पाँव दौडते-हाॅफते,
मजदूरों और मेहनतकशो के ऑसू
बह गये उन्हीं के खून-पसीनो के साथ
और मांग रहे हैं धूल-धूसरित मटमैले
कपड़ों में लिपटे हुए
आज भीअपनो के खोने का हिसाब।
अभी तक अनसुनी हैं
जेठ की तपती दुपहरी में तपाकर,
पूष-माघ की कड़कड़ाती ठंढ में
खुद को गलाकर पिघला कर
हर किसी का पेट भरने वाले
अन्नदाताओं की कुर्बानियों के किस्से।
पता नहीं कब गूंजेगी संसद के गलियारों में,
न जाने कब तलक गूंजेगी गूंगे-बहरे कानों तक धरती की शान
किसानों की चीख शहादत की फेहरिस्त
और शहादत पर बहते ऑसूओं की गूंज।
वैसे न ऑसू हिन्दू के होते हैं न मुस्लिम के होते हैं
हर माॅ से पूंछिए तो हर माॅ के ऑसू एक होते हैं।
मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता
बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ।
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