सभ्यता की पोशाक में जिन्दा हैं अभी भी कबिलाई संस्कृति---

 आधुनिकता का दम्भ भरने वाला

सभ्यता की पोशाक पहनकर

शान से मचल रहा है अभी भी

कबिलाई सुर-ताल और सरगम पर ।

हमारे कुछ रश्मो-रिवाजों में 

धुंधली-सी सही पर 

झलक दिखाई देती है कबिलाई मानसिकता की। 

शादी-व्याह के अवसरों पर 

सूदूर अंतरिक्ष में अपने 

ज्ञान-विज्ञान का परचम फहराने वाले 

मनुष्य के रोम रोम में भी 

उछलकूद मचाने लगती है

उसकी सदियों पुरानी कबिलाई

संस्कृति और कबिलाई तौर-तरीके 

बैंड बाजे की धुन पर 

दूल्हे संग नाचते बाराती,

उनके सारे नखडे झेलते 

चुपचाप बेचारे घाराती। 

कबीलाई सरदार की तरह दूल्हा,

कबिलाई अंदाज में हुल्लड़

हुडदंग मचाते लोग-बाग,

विजेता होने का एहसास लिए 

शर्ते थोपते हुए हर किस्म के बाराती ,

पराजित होने के एहसास के साथ 

 इन शर्तों को पूरा करने की

जद्दोजहद में हलकान परेशान घाराती। 

मुझे परम्पराओं रीति-रिवाजों में छिपा

इतिहास बहुत नहीं मालूम 

पर मस्ती में झूमते-नाचते लोग 

हुल्लड़ हुडदंग मचाते संगी-साथी

इतिहास के सच्चे विद्यार्थी को 

कबिलाई दृष्य सरीखे लगते हैं ।

कबीले यायावरी प्रवृत्ति के 

और चरित्र से हमलावर होते थे  

कबीले हमला करके धन दौलत तो लूटते ही थे,

साथ ही पराजित कबीलों की स्त्रियों से 

शादी-व्याह की शर्त भी जरूर रखते थे। 

आखिर यह रीति किसने चलाई 

हर बार लडकी वाले ही 

क्यों बनते हैं घाराती ?

लड़के वाले क्यों नहीं बनते घाराती ? 

दूल्हे की ही बारात क्यों जाती हैं ?

दुल्हन की बारात क्यों नहीं जाती ?

ओलम्पिक में मेंडल जीतने वाली,

आसमान में फाइटर प्लेन उडाने वाली,

फ्री स्टाइल कुश्ती में कौशल दिखाने वाली,

लडकियाॅ भी तो घोडी चढ सकती हैं !

कुछ कबिलाई चलन-चलन आज भी जिंदा हैं 

जिन्हें सदियों की परम्पराओं का 

हवाला देकर जिंदा रखा गया है। 

प्रायः लडको के जन्म पर ही 

सोहर गाने का चलन-चलन है,

खुद के जन्म लेने पर खुद 

महिलाएं नहीं गाती सोहर 

खुद के वजूद के विस्तार होने पर 

जश्ने-आज़ादी सरीखा जश्न होना चाहिये 

परन्तु नहीं होता किसी तरह जश्न।  

कबिलाई मानसिकता और 

कबिलाई तौर-तरीकों को 

पूरी तरह से ध्वस्त कर ही 

हम पवित्र परिणय मिलन को 

दो आत्माओं के मिलन 

दो परिवारो के मिलन का 

आधुनिक सभ्य और सुसंस्कृत 

संस्कार बना सकते हैं। 


मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता 

बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ।

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